Thursday, November 17, 2016

वह ..


तस्वीर - साभार गूगल.



उसकी मुस्कराहट परतदार समुद्री लहरों जैसी थी
होंठों के कोर से खुद को छुआ कर लौटती
आवाजाही का वह खेल खेलती
जो बिल्लियाँ अपने मालिकों से खेलती है

जब वह भरपूर पुलक से मुस्कुराता था
उसकी नाक के दोनों तरफ गालों की पेशियां ऐसे उमगती थीं
जैसे उड़ने से ठीक पहले पक्षी डैने फुलकाते हैं

हरे बाँस की बाँसुरी से नवयौवना दुर्गा
आश्विन की हवा के सुर फूंकती सी लगती थी
जब सफ़ेद फूली कांसी के कुंज उसकी हंसी में लहलहाते थे

मैं ज़रा सी फूँक मार कर अगर उड़ा देती
उसके चेहरे से अवसाद की स्याह राख
तो नारंगी लपटों का सधा हुआ नृत्य थी उसकी हँसी

उसका मन हरा था, मन के घाव भी हरे थे
एक हरापन उसकी देह में भी था, वह सिहरता था
देह में सरसों की पीली बाड़ी फूटती थी

उसका मेरे साथ होना दरवाजे के दो पल्लों का साथ होना था
एक दूसरे की उँगलियों में फंसी उँगलियाँ हलके से छोड़कर
हम अपने बीच से लोगों को आवाजाही करने देते थे

उसका मेरे साथ होना द्वार के दोनों ओर लगे
सजावटी अशोक के हमउम्र पेड़ों का होना साथ था
जिनपर झांझ, बरसात वसंत सब एक जैसे असर करते थे

उसका मेरा साथ होना मोम और उसकी बाती का साथ होना था
वह तिल - तिल जलाता था, रौशनी फैलाने के नियम से बंधी
मेरी काँपती सी सांसों की लौ उसके साथ ही मिटती जाती थी

उसने ऐसे समेटा था अपने मन में मेरा प्रेम
जैसे वृंत से गिर जाने से पहले अंतिम दफा जवाकुसुम
अपनी पंखुड़ियां समेटता है.


 (समावर्तन" अक्तूबर 2016 अंक में प्रकाशित )