Tuesday, November 28, 2017

रस गंध स्वाद और आंच का कोरस है प्रेम.


सधे हाथों से उम्र की तंदूर में
मेरा कच्चा प्रेम सेंकते हो तुम.

भोजन की इच्छा में तुम्हारे पास ही बैठी मैं
तुम्हे अपलक निहारती हूँ


तमाम रात तुम बिखरी लौ बीनते हो
तुम्हारी ओट पाकर कभी कोई छाया खड़ी नहीं होती

रस गंध स्वाद और आंच का कोरस है प्रेम
यह तुमसे मिलने से पहले मैंने नहीं जाना था

चाँद गहरे चषक में तुम्हारे बाजू पड़ा
 सफ़ेद खुम्बियों का शोरबा है

यह प्रेम है, जो कभी मुझे अतृप्त सोने नहीं देता
यह प्रेम है कि धीमी आंच का सोंधापन
कभी मुझसे छिनता नहीं है

कैरी और फल का भेद जानना
तुम्हारी रसोई की रहस्यमयी कला है

चटकारों से लेकर तृप्तियों तक मेरा हर स्वाद
तुम्हारी ही उँगलियों में पला है.

( दैनिक जागरण "पुनर्नवा " २७ नवंबर में प्रकाशित )

Sunday, November 26, 2017

मुक्तिबोध की कविता "अँधेरे में ..." पर टिप्पणी.



पहले मैं मुक्तिबोध की कविता “अँधेरे में” से अलग फोटोग्राफी पर कुछ तकनिकी बातें कहूँगी. जिससे मुझे इस कविता को समझने में मदद मिली है. 

दो हज़ार ग्यारह में रौन फ्रीक की एक नान नैरेटिव डाक्यूमेंट्री फिल्म रिलीज हुयी थी. फिल्म का नाम था “संसारा” अर्थात संसार. फ्रीक नान नैरेशन के बड़े उस्ताद माने जाते हैं. अब तक वे नान नैरेटिव स्टाइल में विश्व को कई प्रसिद्द फिल्मे दे चुके हैं. संसारा भी उनकी एक महत्वकांक्षी सीरिज का हिस्सा है. इस फिल्म की खास बात यह है कि इसमें टाइम लेप्स तकनीक का इस्तेमाल किया गया है. यह तकनीक दर्शक के देखने के लिहाज से फोटोग्राफी और वीडियो के बीच की कड़ी होती है. जिसमे कि फोटो फ्रेम्स की गति को साधारण से कम स्पीड में चला कर रिकार्ड किया जाता है, और फिर उसे विडिओ में ढाला जाता है. 

यह एक तरह से वीडियो के रूप में असंख्य तस्वीरों की बारिश होती है. तस्वीरों की इस बौछार का मूल सूत्र समय होता है. एक फ्रेम के भीतर आने वाली तस्वीरों की संख्या यह निर्धारित करती है कि आपका वीडियो कितना तेज़ या धीमा चलेगा. यह समय को अपने अनुरूप चलाने का छायाचित्रकार का तकनिकी कौशल है. इसमें दो – तीन सेकेंड्स के अन्दर आप सूरज को उगता और रिवर्स में फ्रेम्स चला कर सूरज को डूबता दिखा सकते है. पंद्रह दिन में खिली कली को क्षणों में खिलता दिखा सकते हैं. खिले फूल को वापस फ्रेम्स उल्टा चला कर कली बनता भी दिखा सकते हैं. यह फोटोग्राफर की समय की गति पर प्रतीकात्मक रूप से जीत है. कला की काल की सतत गति पर विजय है. जैसा कि हम जानते ही हैं, कला या साहित्य के हर फार्म में कलाकार या लेखक की सबसे बड़ी चुनौती अलग – अलग समयों में उसके मन में आये ख्यालों, बिम्बों को कला के शिल्प या फार्म में ढालने की होती है. 

कविता में भी अलग समय में मन में आये बिम्बों और विचारो का अर्थपरक समायोजन ही कवि की सबसे बड़ी समस्या है. उसे यह देखना पड़ता है कि वह किस चित्र या विचार को कविता में कहाँ रखे. यह समायोजन सचेतन या अवचेतनिक दोनों अवस्थाओं में हो सकता है. यह कहना न होगा कि सतर्क और अर्थपूर्ण संयोजन ही किसी कविता को कालजयी बनाता है. चित्रों का ऐसा ही एक सफल अरेंजमेंट मुक्तिबोध अपनी लम्बी कविता “अँधेरे में ” में करते हैं. 

टाइम लेप्स तकनीक का यह विवरण मैंने “समय की गति” से कलाकार द्वारा संरक्षित चित्रों के संबंध को परिभाषित करने के लिए दिया है. जब कलाकार फोटोग्राफर होता है तो वह सिर्फ दो दिशाओं में गति करते हुए चित्रों को अरेंज कर पाता है. जब इन्ही समयों के सापेक्ष आब्जर्वर कोई कवि होता है तो कविता एक शक्तिशाली माध्यम की तरह उसे मुक्त रूप से किसी भी दिशा में बहने की आज़ादी देती है. आप चाहें तो कई बिम्बों को एक बिम्ब में कोलाज की तरह भी रख सकते हैं. कई परिभाषाओं को एक वाक्य में चित्र की तरह भी इस्तेमाल कर सकते हैं. मैंने कई महान कवियों को बहुधा इस तकनीक का इस्तेमाल करते देखा है. 

यह तो हुयी देखे गए चित्रों को अर्थपूर्ण गति देने और किसी कला के स्पेसिफिक शिल्प में ढालने की बात. दूसरी बात होती है इंडीविजुअल चित्र के अस्तित्व की बात. इसे समझने के लिए हम फिर छायाचित्रों की दुनिया में वापस लौटते हैं. 

यहाँ मुझे रोलां बार्थ याद आते हैं. बार्थ ने एक बार फोटोग्राफी पर विचार करते हुए लिखा था कि फोटोग्राफी का दर्शन बौद्ध धर्म के क्षणवाद की तरह है. उनका कहना था कि “तथता” अर्थात “हेयर इट इज ” हिंदी में “यह” की एक भावना हर चित्र के साथ जुडी होती है. चित्र उस एक क्षण का प्रतिनिधित्व करता है जिस क्षण में वह खींचा गया है. ज़ाहिर है कि वह क्षण फिर लौट कर नहीं आएगा. चित्र, उस क्षण को और उसमे उपस्थित दृश्य के, अन्तर्निहित सन्देश को स्वयं में गूंथ कर रखता है. यह तात्कालिकता की चरम परकाष्ठा है. फिर वही बात ठीक उसी तरह कभी घटित नहीं होती आप दृध्य दोहराने की कोशिश करें तब भी नहीं. फोटो समय के अन्तर्निहित सत्व या सन्देश को पकड़ने की फोटोग्राफर की तकनीक है. समय की अभिव्यक्ति या उसके सन्देश को यहाँ “संरक्षित” किया जा रहा है. कला में समय को वैसे बांधा जा रहा है, जैसा की वह वास्तव में है, और फिर कभी वैसा ही नहीं होगा. यह फोटोग्राफी का दर्शन है. 

इस कांसेप्ट को कविता में ले जाएँ तो यह कविता में गूंथे हुए इंडिविजुअल बिम्ब का दर्शन भी हैं. उस अकेले बिम्ब का जो कविता के बहाव में अन्य चित्रों के साथ है, लेकिन उसका स्वयं का एक अलग अर्थ – अस्तित्व भी है. मुझे मुक्तिबोध की कविता “अँधेरे में” भी ऐसी ही एक कलाकृति लगती है जिसमे अंधरे के व्यापक साम्राज्य को रेफर करने वाले चित्रों की बौछार है. एक संयत और योजनाबद्ध बौछार. जिसमे काल की गति के मध्य कवि के मन में संरक्षित चित्रों की एक सार्थक चित्रमाला है. साथ ही साथ इस संयत बौछार में उपस्थित प्रत्येक चित्र का एक उदेश्य है, और वह उद्देश्य अपने समय में उपस्थित अँधेरे की पहचान करना है. इस एक लम्बी कविता में उपस्थित हर चित्र का काम कविता के शीर्षक को रेफर करना है, बहुत साफ़ कहूँ तो “अँधेरे में.. “ घटित हो रहे जीवन के अर्थ को रेफर करना है. अपनी पूरी अभिधा और लक्षणा  के साथ. लक्षणा इसलिए कि कविता अपने समय का प्रतिनिधित्व करने के साथ – साथ काल को पछाड़ती हुयी एक बृहद मानव प्रवृति और सामाजिक नियति का भी प्रतिनिधित्व करती है, जो अक्सर काल से अप्रभावित रहता है.
यह कविता टाइम – लैप्स टेक्निक और फोटोग्राफी के दर्शन को खुद में बहुत सुन्दर ढंग से समाहित करती है. यह किसी कवि द्वारा रचित चित्रों के लिखित उपयोग की महागाथा है. 

इस कविता में कवि अपने दैदीप्यमान अल्टर ईगो का परिचय आपसे कराता है और उससे संवाद करता है. यह संवाद आपको समाज और अवचेतन में उपस्थित ऐसे अनेक धूसर गलियारों तक ले जाता है, जहाँ पहुचने का सामर्थ्य किसी मामूली कविता के बस में कभी नहीं होता. यही धूसर चित्रात्मक सघनता इस कविता को उत्कृष्ट कलाकृति बनाती है. इस कविता में चित्र हैं, लेकिन ये सिर्फ चित्र नहीं हैं. प्रत्येक चित्र का अपना सन्दर्भ है वह किसी गहनतम बात की तरफ इंगित करता है. जैसा की बार्थ ने कहा था यह खुद में अपने अस्तिगत सन्देश को इंगित करता है. मुक्तिबोध के ही स्वरों में कहूँ तो यह “धूल के कणों में अनहद नाद का कम्पन है”. एक व्यक्ति जो कवि है, के स्वर में समाज के अंतिम मनुष्य की पीड़ा की कथा है. कई धूसर भावों की सजातीयता से बद्ध मामूली विवरण से लग रहे ये चित्र अपने अन्दर अपना सन्देश गढ़ते हैं.ये चित्र खुद में समेकित समाज सन्देश  साधारण मनुष्य की नियति को भी पूरे बल से इंगित करते हैं. वास्तविकता के निर्मम चित्रण के बावजूद यह कविता कला की, समय पर, एक तरह से जय का दस्तावेज है. यह पीडाओं  के निर्मम सार्वजनीकरण को आमंत्रित करता, आशा का उत्सव है. और इन सब से परे यह कविता एक समर्थ कवि कि सचेतन काव्य – योजना का उत्कृष्ट नमूना है. यह कविता कवि द्वारा कहीं – कहीं बेहद एहतियात से आरोपित किये गए वर्तमान के सपाट चित्रण के बावजूद भय, असुरक्षा, दुःख, असंतोष और आशा का अद्वितीय जटिल पहेलीनुमा कोलाज़ है, और अपने पूर्ण स्वरुप में उस पहेली का हल भी है.

मुक्ति बोध ने इस कविता के समाप्त होने के लगभग बाद एक निबंध में लिखा था कि आज मैंने एक लम्बी कविता खत्म की और उसका अंत मुझे कमज़ोर लगा. मुझे लगता है निबंध में यह बात  शायद इसी कविता के लिए लिखी गयी होगा. इस निबंध में वे कविता को प्रभावशाली ढंग से खत्म न कर पाने की अपनी मुश्किलों के बारे में भी लिखते हैं.

मुक्तिबोध शायद इस कविता के अंत को लेकर संतुष्ट नहीं थे. लेकिन जब मैं इसे पढ़ती हूँ तब अक्सर मुझे इस कविता का अंत फूल सजाने की जापानी कला इकेबाना की याद दिलाता है. जिसमे कि फूलों के गुलदस्ते को एक निश्चित तरीके से इस तरह सजाया जाता है कि वह देखने वाले से जीवित अस्तित्व की तरह मुखातिब हो और आँखों को एक अर्थ – सौन्दर्य तक भी ले जा सके. वह एक ऐसा सौन्दर्य निर्मित करे जिसमे एक सन्देश भी हो, और एक अध्यात्म भी. इस वजह से शुरुआत में  आधार पर, उसे सघन रखा जाता है और उर्ध्वाधर अंत की तरफ वह विरल होती जाती है. कहना न जिस अंत से मुक्तिबोध संतुष्ट न हो सके उस अंत ने इस कविता को अधिक ग्राह्य और सुन्दर ही बनाया है. अस्तित्ववाद और जनवाद के तमाम द्वंद्व के बाद और बावजूद इस कविता के इस पक्ष को देखना मेरे लिए एक निजी सुख भी है.  

-(रज़ा फाउन्डेशन के कार्यक्रम युवा - २०१७ में मुक्तिबोध की कविता "अँधेरे में .." पर दिए गए वक्तव्य में इसके कुछ हिस्से शामिल किये गए थे. )